Temperature- “किसी वस्तु का ताप वह भौतिक राशि है जिससे यह प्रकट होता है कि वह वस्तु कितनी गर्म है अथवा कितनी ठण्डी है।” माना A व B दो वस्तुएँ एक-दूसरे के सम्पर्क में रखी हैं। माना वस्तु 4 का ताप अधिक तथा वस्तु B का ताप निम्न है।
वस्तुओं A व B को सम्पर्क में रखने पर ऊष्मा अधिक ताप वाली वस्तु 4 से निम्न ताप वाली वस्तु B की ओर बहने लगती है जिससे वस्तु A का ताप घटने तथा वस्तु B का ताप बढ़ने लगता है। वस्तुओं A व B के बीच ऊष्मा का प्रवाह तब तक होता रहता है, जब तक कि वस्तुओं B व 4 के ताप समान न हो जाएँ।
इस अवस्था को तापीय साम्य (Thermal Equilibrium) कहते हैं। अतः “ताप वस्तु की वह अवस्था है जो दो वस्तुओं को सम्पर्क में रखने पर उनके बीच ऊष्मा प्रवाह की दिशा को निर्धारित करती है।” दूसरे शब्दों में, “ताप किसी वस्तु का वह गुण है जिससे यह प्रकट होता है कि वह वस्तु अपने सम्पर्क में रखी.
तापमापन (Measurement of Temperature)
प्रायः हम दो वस्तुओं को छूकर यह बता सकते हैं कि कौन-सी वस्तु अधिक गर्म है अर्थात् कौन-सी वस्तु अधिक ताप पर है। परन्तु यदि दो वस्तुओं के तापों में बहुत कम अन्तर हो, तब छूने से हम इस अन्तर का अनुमान नहीं लगा सकते, अतः किसी वस्तु के ताप को मापने के लिए हम एक यन्त्र का उपयोग करते हैं जिसे तापमापी अथवा थर्मामीटर (Thermometer) कहते हैं। वस्तु के ताप को किसी यन्त्र द्वारा डिग्री में मापने को तापमापन कहते हैं।

तापमापी में प्रयुक्त पदार्थ के किसी ऐसे गुण का उपयोग करते हैं, जो ताप परिवर्तन के साथ उसी अनुपात में प्रसार करता है। इसे पदार्थ का तापमापक गुण कहते हैं। सामान्यतः तापमापी बनाने के लिए पारे के ऊष्मीय प्रसार के गुण का प्रयोग करते हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं-
(i) प्रति डिग्री ताप-वृद्धि पर पारे में प्रसार एकसमान होता है।
(ii) अन्य द्रवों की अपेक्षा पारे का प्रसार अधिक है, अतः थोड़ी-सी ताप-वृद्धि भी सही-सही नापी जा सकती है।
(iii) पारा काँच की नली की दीवारों से नहीं चिपकता
(iv) चमकदार व अपारदर्शी होने के कारण काँच की नली में पारा आसानी से दिखाई देता है।
(v) ऊष्मा का सुचालक होने के कारण पारा वस्तु के सम्पर्क में आने पर शीघ्रता से उसका ताप ग्रहण कर लेता है। (vi) पारे का गलनांक -39°C तथा क्वथनांक 357°C होता है, अत: यह काफी लम्बे परास (लगभग 30°C से 345°C तक) के ताप नाप सकता है।
पारे का तापमापी (Mercury Thermometer)
पारे का तापमापी बनाने में पारे के इस ऊष्मीय गुण का उपयोग किया जाता है कि ताप बढ़ाने से इसका आयतन बढ़ता है।
पारे का तापमापी बनाने के लिए एक बारीक, समान व्यास वाली, काँच की मोटी केशनली लेते हैं। इसके एक सिरे को बन्द करके एक घुण्डी (bulb) बना देते हैं। खुले सिरे को केशनली में पारा भरने के लिए रखते हैं। बल्ब को गर्म करके उसकी वायु बाहर निकालते हैं तथा खुले सिरे के बीच में पारा रखकर बल्ब को ठण्डा होने देते हैं। इससे कुछ पारा बल्ब में आ जाता है। इस क्रिया को कई बार दोहराने पर पूरा बल्ब पारे से भर जाता है। पारा भरने के बाद दूसरा सिरा भी पिघलाकर बन्द कर देते हैं।
अंशांकन तापमापन के लिए तापमापी को अंशांकित करना होता है। इसके लिए पहले तापमापी के बल्ब को शुद्ध पिघलती हुई बर्फ में रखते हैं तथा केशनली में पारे के तल पर निशान लगा देते हैं। इसे अधोबिन्दु अथवा हिमांक (ice point) कहते हैं। अब तापमापी के बल्ब को जल की वाष्प में रखते हैं तथा केशनली में पारे के ऊपरी तल पर निशान लगा देते हैं। इसे ऊर्ध्व बिन्दु अथवा वाष्प बिन्दु (steam point) कहते हैं।
इन दोनों बिन्दुओं के बीच की दूरी को समान लम्बाई के भागों में बाँटकर निशान लगा देते हैं। ऐसे प्रत्येक भाग को अंश (degree) कहते हैं। ये दोनों बिन्दु अर्थात् अधोबिन्दु तथा ऊर्ध्वबिन्दु स्थिर बिन्दु कहलाते हैं।
डॉक्टरी थर्मामीटर (Clinical Thermometer)
प्रायः यह एक फारेनहाइट थर्मामीटर ही होता है, जो मनुष्ष्य के शरीर का ताप नापने के काम आता है। इस थर्मामीटर का 1 आकार छोटा होता है। चूँकि स्वस्थ मनुष्य का ताप 98.4°F होता है, इसे तापमापी की नली पर तीर बनाकर प्रदर्शित किया गया है। इस थर्मामीटर में 95°F से 110°F तक निशान लगे होते हैं (चित्र 8.2)।
मनुष्य के शरीर का ताप 95°F से कम तथा 110F से अधिक होना सम्भव नहीं है। आजकल फारेनहाइट के बदले डॉक्टरी थर्मामीटर में सेल्सियस पैमाने का प्रयोग भी होने लगा है जिस पर स्वस्थ मनुष्य का ताप 37°C (लगभग) होता है।
इस थर्मामीटर में बल्ब के ऊपर C भाग पर केशनली को मोड़कर कुछ संकीर्णित (constrict) कर देते हैं। जब इस थर्मामीटर मनुष्य के मुँह में अथवा बगल में लगाया जाता है तो ताप बढ़ते समय पारा ऊपर तो चढ़ जाए, परन्तु थर्मामीटर को मनुष्य को के मुँह से अथवा बगल से निकाल लेने पर जब ताप गिरने लगे तो पारा नीचे न गिरे।
इस प्रकार हम मनुष्य के शरीर का ताप कभी भी ठीक-ठीक पढ़ सकते हैं। थर्मामीटर को झटका देने पर पारा नीचे उतर आता है।
इस थर्मामीटर की केशनली का छेद अत्यन्त बारीक होता है, अतः थर्मामीटर में पारे की स्थिति की माप पढ़ने के लिए थर्मामीटर की नली की एक ओर की दीवार को लेन्स का आकर देकर पढ़ते हैं। ऐसा करने से पारे की लाइन का आकार बड़ा होकर दिखाई देने लगता है।
ताप के विभिन्न पैमाने (Different Scales of Temperature)
ताप मापने के लिए तीन पैमाने प्रचलित हैं, जो चित्र 8.3 में दिखाए गए हैं।
(1) सेल्सियस अथवा सेन्टीग्रेड पैमाना (Celsius or Centigrade Scale) इसे स्वीडन के वैज्ञानिक सेल्सियस ने 1742 में प्रचलित किया था। इसमें एक वायुमण्डलीय दाब (0.76 मीटर पारे का स्तम्भ) पर हिमांक (अथवा अधोबिन्दु) 0°C तथा वाष्प बिन्दु (अथवा ऊर्ध्व बिन्दु) 100°C होता है। इनके बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बाँटा गया है। प्रत्येक भाग को 1°C (डिग्री सेल्सियस) कहते हैं।
(2) फारेनहाइट पैमाना (Fahrenheit Scale)— इसे जर्मनी के वैज्ञानिक फारेनहाइट ने 1710 में प्रचलित किया था। इस तापमापी में अधोबिन्दु अथवा हिमांक 32°F तथा ऊर्ध्व बिन्दु (अथवा वाष्प बिन्दु) 212°F होता है। इनके बीच की दूरी को (212 – 32) = 180 बराबर भागों में बाँटा गया है। प्रत्येक भाग को 1°F (डिग्री फारेनहाइट) कहते हैं।
(3) केल्विन अथवा परम ताप पैमाना (Kelvin or Absolute Scale)— इस पैमाने को लॉर्ड केल्विन ने 1852 में प्रचलित किया था। इसमें हिमांक 273 K तथा वाष्प बिन्दु 373 K होता है। इनके बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बाँटा गया है। प्रत्येक भाग को 1 K (केल्विन) कहते हैं।
केल्विन पैमाने पर मापे गए ताप को परम ताप भी कहते हैं, अतः इस पैमाने को परम ताप पैमाना भी कहते हैं। वैज्ञानिक कार्यों में हम परम ताप पैमाने का ही प्रयोग करते हैं। इस पैमाने के शून्य (OK) को परम शून्य (absolute zero) कहते हैं। यह न्यूनतम सम्भव ताप है।
व्यावहारिक रूप में परम शून्य ताप प्राप्त नहीं किया जा सकता। केल्विन पैमाने के ताप लिखने में डिग्री नहीं लिखा जाता। उदाहरण के लिए 300°K गलत है, 300 K सही है।
सेल्सियस, फारेनहाइट तथा केल्विन पैमानों में सम्बन्ध (Relation between Celsius, Fahrenheit and Kelvin Scales)
(i) सेल्सियस व फारेनहाइट पैमानों में सम्बन्ध (Relation between Celsius and Fahrenheit Scales) सेल्सियस पैमाने पर जल के हिमांक तथा वाष्प बिन्दु के बीच का भाग 100 बराबर भागों में बँटा होता है, जबकि फारेनहाइट पैमाने पर यह 180 बराबर भागों में बँटा होता है.
(ii) सेल्सियस तथा केल्विन पैमानों में सम्बन्ध (Relation between Celsius and Kelvin Scales )
सेल्सियस तथा केल्विन दोनों पैमानों पर हिमांक (अधो बिन्दु) तथा वाष्प बिन्दु (ऊर्ध्व बिन्दु) के अन्तर को 100 बराबर भागों में बाँटा गया है,
(1) आपतन कोण सदैव परावर्तन कोण के बराबर होता है। (2) आपतित ध्वनि तरंग, अभिलम्ब तथा परावर्तित ध्वनि तरंग एक ही तल में होते हैं। ध्वनि तरंगों के परावर्तन का व्यावहारिक उपयोग ध्वनि पट्ट तथा सोनार में किया जाता है।
“किसी स्थान पर की गई ध्वनि जब किसी दूर के तल से परावर्तित होकर पुनः सुनाई देती है तो उसे प्रतिध्वनि कहते हैं।” प्रतिध्वनि स्पष्ट तभी सुनाई देगी, जबकि परावर्तक तल का क्षेत्रफल अधिक हो तथा प्रारम्भिक ध्वनि लघु तथा उच्च आवृत्ति की हो। जैसे—यदि किसी पहाड़ी की ओर हम तालियाँ बजाएँ अथवा बन्दूक से गोली छोड़ें तो हमें उसकी प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
प्रतिध्वनि की तीव्रता, प्रारम्भिक ध्वनि की तीव्रता से कम होती है। प्रतिध्वनि सुनने के लिए परावर्तक तल ध्वनि स्रोत से कम-से-कम 16.6 मीटर की दूरी पर होना चाहिए, क्योंकि श्रोता के कान पर किसी लघु ध्वनि का प्रभाव, ध्वनि के बन्द हो जाने के सेकण्ड बाद तक रहता है। प्रतिध्वनि कान को तभी स्पष्ट सुनाई देती है जब वह कान में मूल ध्वनि के पहुँचने.
सेकण्ड पश्चात् पहुँचे। यदि ध्वनि की चाल 332 मीटर/सेकण्ड हो तो वह -सेकण्ड में 33.2 मीटर की दूरी तय करेगी, अतः 10 स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनने के लिए परावर्तक तल श्रोता से कम-से-कम 33/2=16.6 मीटर दूर स्थित हो। यदि परावर्तक की दूरी 16.6 मीटर से कम होगी तो मूल ध्वनि तथा प्रतिध्वनि परस्पर मिल जायेंगे। इस दशा में प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनाई नहीं देगी।
प्रतिध्वनि के द्वारा समुद्र की गहराई, वायुयान की ऊँचाई, समुद्र के अन्दर बर्फ अथवा पहाड़ी चट्टानों का पता लगाया जा सकता है। इसके लिए ध्वनि उत्पन्न करने तथा प्रतिध्वनि सुनने के बीच का समय ज्ञात कर लेते हैं। यदि ध्वनि की चाल v है.