साधारणतया हमारे कान को जो कुछ सुनाई देता है, उसे हम ध्वनि कहते हैं। परन्तु वास्तव में ध्वनि वह बाह्य कारक अथवा विक्षोभ है, जिससे प्रत्येक जीव की श्रवण इन्द्रियाँ प्रभावित होती हैं। सभी ध्वनि स्त्रोतों का परीक्षण करने पर पता चलता है कि ध्वनि उत्पन्न करने में उनका कोई-न-कोई भाग कम्पन करता है।
जब हम किसी घण्टे पर चोट मारते हैं, तो हमें ध्वनि सुनाई देती है और घण्टे को हल्के से छू लेने पर उसमें कम्पन का अनुभव होता है। जैसे ही झनझनाहट बन्द हो जाती है, ध्वनि भी बन्द हो जाती है। यदि किसी सितार के तार को अँगुली से दबाकर छोड़ते हैं, तो वह कम्पन करने लगता है तथा उससे ध्वनि निकलने लगती है। इसी प्रकार वायु स्तम्भों में सिरों पर कसी हुई धातु की डोरी में कम्पन करके ध्वनि उत्पन्न की जा सकती है।
अतः स्पष्ट है कि ध्वनि तभी उत्पन्न होती है, जब ध्वनि स्रोत कम्पन अवस्था में होता है तथा यह तरंगों के रूप में वायु फैलती है।
ध्वनि का संचरण (Propagation of Sound)
ध्वनि के एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होने को ध्वनि का संचरण कहते हैं। इसके लिए तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं-

(1) ध्वनि के संचरण के लिए माध्यम का होना आवश्यक है।
(2) ध्वनि के संचरण में माध्यम के कण अपना स्थान नहीं छोड़ते हैं।
(3) ध्वनि माध्यम में तरंगों के रूप में चलती है।
विभिन्न माध्यमों में ध्वनि का संचरण-ध्वनि के संचरण के लिए माध्यम आवश्यक है। ध्वनि वायु में से होकर हमारे कानों तक पहुँचती है। नदी या तालाब के अन्दर दो व्यक्ति आसानी से बातें कर सकते हैं, क्योंकि ध्वनि जल से होकर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के पास पहुँचती है।
रेल की पटरी पर कान रखकर दूर से आती हुई रेलगाड़ी की ध्वनि सुनी जा सकती है। निर्वात में ध्वनि का संचरण संभव नहीं है। ध्वनि केवल गैसों में से ही नहीं, अपितु ठोसों एवं द्रवों में से भी होकर चली जाती है। यही कारण है कि बच्चे डोरे का टेलीफोन बनाकर बात कर लेते हैं. अतः ध्वनि के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में किसी-न-किसी पदार्थिक माध्यम का होना आवश्यक है।
ध्वनि तरंग (Sound Wave) की पूरी जानकारी
कम्पन करने वाली वस्तु से ध्वनि उत्पन्न होती है। ध्वनि तरंग वास्तव में एक प्रकार की यान्त्रिक तरंग होती है। जब किसी ध्वनि स्रोत को कम्पित कराते हैं, तो वायु में एक हलचल या विक्षोभ उत्पन्न हो जाता है, जो एक निश्चित वेग से आगे बढ़ता है।
इस स्थिति में, माध्यम के कण अपनी साम्य स्थिति के इधर-उधर कम्पन करते हैं तथा प्राप्त विक्षोभ को आगे के कर्णों को दे देते हैं। आगे वाले कण विक्षोभ को और आगे स्थानान्तरित कर देते हैं। इस प्रकार विक्षोभ आगे की ओर गमन करता जाता है तथा हमारे कानों तक ध्वनि तरंग के रूप में पहुँचाता है।
स्रोत को कम्पित करने के लिए जो कार्य स्रोत पर किया जाता है, उसका अधिकांश भाग ऊष्मा में परिवर्तित हो जाता है तथा कुछ भाग ध्वनि में बदलता है। स्रोत के कम्पित होने से माध्यम के कण कम्पन करने लगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि ध्वनि तरंगें, यान्त्रिक तरंगें हैं।
ध्वनि तरंगों एवं प्रकाश तरंगों में अन्तर (Differences between Sound Waves and Photo Waves)
ध्वनि तरंगें (यान्त्रिक तरंगे)
ये यान्त्रिक तरंगें होती हैं। इनके संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। ये अनुदैर्घ्य तरंगें होती हैं। इनकी तरंगदैर्घ्य 1 मीटर कोटि की होती है। 0°C ताप पर वायु में इनकी चाल 332 मीटर/से. होती है। इनकी चाल पर वायु के ताप व नमी का प्रभाव पड़ता है। इन तरंगों में माध्यम के कण अपनी-अपनी साम्य अवस्थाओं के दोनों ओर आवर्त गति करते हैं।
प्रकाश तरंगें (विद्युत-चुम्बकीय तरंगे)
ये विद्युत चुम्बकीय तरंगें होती हैं। 7 इनके संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है। ये अनुप्रस्थ तरंगें होती हैं। इनकी तरंगदैर्घ्य 10 मीटर कोटि की होती है। निर्वात अथवा वायु में इनकी चाल 3 x 108 मीटर/सेकण्ड होती है। इनकी चाल पर ताप व नमी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इन तरंगों में विद्युत क्षेत्र तथा चुम्बकीय क्षेत्र परस्पर लम्बवत् तलों में दोलन करते हैं।
यान्त्रिक तरंगों के प्रकार की पूरी जानकारी
माध्यम के कणों के कम्पन करने की दिशा के आधार पर यान्त्रिक तरंगें दो प्रकार की होती हैं-
(1) अनुप्रस्थ तरंगें (Transverse Waves)-
उदाहरण: (i) शान्त जल की सतह पर उत्पन्न तरंगें जब तालाब के स्थिर जल में पत्थर फेंका जाता है तो वृत्ताकार अनुप्रस्थ तरंगें उत्पन्न होती हैं। ये तरंगें एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर जाती दिखाई देती हैं। जल के कण अपने स्थान पर ऊपर-नीचे कम्पन करते रहते हैं।
यदि जल पर कागज का टुकड़ा डाल दें तो हम देखते हैं कि कागज का टुकड़ा ऊपर-नीचे तो हो रहा है, परन्तु तरंगों के साथ आगे नहीं बढ़ रहा है।
अतः स्पष्ट है कि पत्थर फेंकने से उत्पन्न तरंगों के साथ जल के कण कम्पन तो करते हैं, परन्तु अपने स्थान पर बने रहते हैं। क्योंकि कम्पनों की दिशा तरंग-गति की दिशा के लम्बवत् है; अत: उत्पन्न तरंगें अनुप्रस्थ तरगें हैं.
किसी भी क्षण तालाब के कुछ भागों में जल उठा हुआ होता है तथा कुछ भागों में जल दबा हुआ होता है।
इसे (लैम्डा) से प्रदर्शित करते हैं। यह दूरी AB से प्रदर्शित है। माध्यम का कोई कण एक बार ऊपर-नीचे होने में जितना समय लेता है, उतने समय में तरंग एक श्रृंग से दूसरे श्रृंग तक (अथवा एक गर्त से दूसरे गर्त तक पहुँच जाती है। यह समय तरंग का आर्वतकाल (T) कहलाता है।
(ii) तनी डोरी के एक सिरे को हिलाने पर उत्पन्न तरंगें-यदि रस्सी के एक सिरे को दीवार में लगी कील से बाँधकर दूसरे सिरे को हाथ से ऊपर-नीचे हिलाएँ तो रस्सी में उसकी लम्बाई की दिशा में तरंगें संचरित हो जाती हैं।
यदि रस्सी के किसी स्थान पर चॉक से निशान लगाकर ध्यान से देखें तो निशान रस्सी की लम्बाई के लम्बवत् कम्पन करता हुआ दिखाई देता है, अतः रस्सी में उत्पन्न तरंगें अनुप्रस्थ तरंगें हैं।
अन्य उदाहरण–वायलिन, सितार आदि की तनी हुई डोरियों में उत्पन्न तरंगें तथा जल की सतह पर उत्पन्न तरेंगे। गुण—इस प्रकार की तरंगें केवल उन ठोसों तथा द्रवों की सतह पर ही उत्पन्न की जा सकती हैं जिनमें दृढ़ता होती है। ये तरंगें गैसों में उत्पन्न नहीं की जा सकती हैं, क्योंकि गैसों में दृढ़ता नहीं होती है। ये तरंगें द्रवों में केवल उनके तल पर बन सकती हैं, द्रवों के अन्दर नहीं।
(2) अनुदैर्घ्य तरंगें (Longitudinal Waves)-
“जब किसी तरंग में माध्यम के कण तरंग के चलने की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उत्पन्न तरंग अनुदैर्घ्य तरंग कहलाती है।” यह सम्पीडन एवं विरलनों के मिलने से बनती है।
उदाहरण-माना एक स्वरित्र द्विभुज (tuning fork) वायु में कम्पन कर रहा है। जब स्वरित्र की भुजाएँ बाहर की ओर जाती हैं तो ये वायु की परतों पर दाब डालकर उन्हें पास-पास कर देती हैं, इससे सम्पीडन उत्पन्न हो जाता है [चित्र 7.3 (a)]। जब स्वरित्र की भुजाएँ अन्दर की ओर आती हैं तो वायु की परतों पर दाब कम होने से ये दूर-दूर हो जाती है, इससे विरलन उत्पन्न हो जाता है.
स्वरित्र की भुजाएँ पुनः बाहर को जाती हैं तथा वायु की परतों पर पुनः दाब डालती हैं.
अतः जब किसी माध्यम में अनुदैर्घ्य तरंगें चलती हैं तो माध्यम में किसी क्षण सम्पीडन तथा विरलन की दशाएँ एकान्तर क्रम में उत्पन्न होती हैं। ये दशाएँ तरंगों के चलने की दिशा में आगे बढ़ती रहती हैं।
एक सम्पीडन के मध्य भाग से अगले सम्पीडन के मध्य भाग तक (अथवा एक विरलन के मध्य भाग से लेकर अगले विरलन के मध्य भाग तक) की दूरी तरंगदैर्ध्य कहलाती है चित्र 7.3 (d)]। इसे से प्रदर्शित करते हैं।
यदि किसी स्थान पर किसी समय विरलन (अथवा सम्पीडन) होता है तो उस स्थान पर जितने समय पश्चात् दोबारा विरलन (अथवा सम्पीडन) होता है वह समय उस तरंग का आवर्तकाल (T) कहलाता है।
अन्य उदाहरण– वायु में चलने वाली ध्वनि तरंगें, हुक से लटके एक स्प्रिंग के सिरे से बाट बाँधकर खींचकर छोड़ने से स्प्रिंग में उत्पन्न तरंगें, जल के अन्दर चलने वाली तरंगें।
गुण — इस प्रकार की तरंगें ठोस, द्रव तथा गैस तीनों ही माध्यमों में उत्पन्न होती हैं। वायु में ध्वनि इन्हीं तरंगों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती है। द्रवों के अन्दर केवल अनुदैर्घ्य तरंगें संचरित होती हैं।
अनुदैर्ध्य तरंगों में दाब तथा घनत्व परिवर्तन (Change of Pressure and Density in Longitudinal Waves)
अनुदैर्घ्य तरंगों में सम्पीडन वाले स्थानों पर माध्यम के कण सामान्य अवस्था की अपेक्षा पास-पास होते हैं, अतः वहाँ माध्यम का घनत्व व दाब सामान्य अवस्था की ओर अधिक रहता है।
इसी प्रकार विरलन वाले स्थानों पर माध्यम के कण दूर-दूर होने के कारण, घनत्व व दाब सामान्य अवस्था की अपेक्षा कम रहता है।
अनुप्रस्थ तथा अनुदैर्ध्य तरंगों में अन्तर (Differences between Transverse and Longitudinal Waves)
अनुप्रस्थ तरंगें (Transverse Waves)
इसमें माध्यम के कण तरंग के चलने की दिशा के लम्बवत् कम्पन करते हैं। ये तरंगें शृंगों तथा गर्तों के रूप में संचरित होती हैं। एक श्रृंग तथा एक गर्त मिलकर एक अनुप्रस्थ तरंग बनती है।
ये तरंगें केवल ठोस माध्यमों में तथा द्रवों के ऊपरी तल पर उत्पन्न होती हैं, द्रवों के अन्दर तथा गैसों में नहीं । इनके संचरित होने से माध्यम में दाब तथा घनत्व में परिवर्तन नहीं होते हैं।
अनुदैर्घ्य तरंगें (Longitudinal Waves)
इसमें माध्यम के कण तरंग के चलने की दिशा के समान्तर कम्पन करते हैं। ये तरंगें सम्पीडनों तथा विरलनों के रूप में संचरित होती हैं। एक सम्पीडन तथा एक विरलन से मिलकर एक अनुदैर्ध्य तरंग बनती है। ये तरंगें ठोस, द्रव तथा गैस तीनों प्रकार के माध्यमों में उत्पन्न हो सकती हैं। इनके संचरित होने से माध्यम में दाब तथा घनत्व में परिवर्तन होते हैं।
तरंग से सम्बन्धित कुछ परिभाषाएँ
(1) दोलन की कला (Phase of Vibration) — “वह राशि जो दोलन करने वाली वस्तु के विस्थापन एवं गति की दिशा तथा अन्य सम्बन्धित राशियों को किसी विशेष क्षण पर व्यक्त करती है, दोलन की कला कहलाती है”
एक तरंग में स्थित सभी कण जिनके विस्थापन समान हैं तथा एक दिशा में गति कर रहे हैं, समान कला में कहलाते हैं जैसे। चित्र 7.4 में A व E तथा C व G समान कला में हैं।
वे दो कण जिनके विस्थापन समान हों परन्तु वे विपरीत दिशा में कम्पन कर रहे हों, विपरीत कला में कहलाते हैं। जैसे चित्र 7.4 में 4 व C तथा E व G विपरीत कला में हैं।
(2) आयाम (Amplitude)- “तरंग संचरण के कारण माध्यम के कणों का अपनी साम्य स्थिति के एक ओर अधिकतम विस्थापन तरंग का आयाम कहलाता है।” (चित्र 7.4) इसे ‘a’ से प्रदर्शित करते हैं तथा इसका मात्रक सेमी अथवा मीटर है।
(3) तरंग चाल (Speed of Wave ) — “किसी तरंग द्वारा 1 सेकण्ड में तय की गई दूरी तरंग चाल कहलाती है।” इसे से प्रदर्शित करते हैं। इसका मात्रक मीटर/सेकण्ड है।
(4) तरंगदैर्घ्य (Wave-length ) — ” माध्यम के किसी कण को एक कम्पन करने में लगे समय के दौरान तरंग द्वारा चली गई दूरी को तरंगदैर्ध्य कहते हैं” अथवा किसी क्षण समान कला में स्थित दो निकटतम कणों के बीच की दूरी को तरंगदैर्ध्य कहते है”।
अनुप्रस्थ तरंग में किन्हीं दो निकटवर्ती शृंगों अथवा दो निकटवर्ती गर्तों के बीच की दूरी तरंगदैर्ध्य कहलाती है। अनुदैर्घ्य तरंग में किन्हीं दो निकटवर्ती अधिकतम सम्पीडन अथवा किन्हीं दो निकटवर्ती अधिकतम विरलन वाले कणों के बीच मीटर है।
तारत्व अथवा पिच
किसी ध्वनि का तारत्व ध्वनि का वह अभिलक्षण है जिसके कारण किसी ध्वनि को मोटी अथवा पतली कहा जाता है। मोटी ध्वनियाँ अपेक्षाकृत नीचे तारत्व की कहलाती हैं, जबकि पतली ध्वनियों का तारत्व ऊँचा होता है। ध्वनि का तारत्व उसकी आवृत्ति पर निर्भर करता है।
जैसे-जैसे ध्वनि-स्रोत की आवृत्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उत्पन्न ध्वनि का तारत्व भी बढ़ता जाता है तथा ध्वनि पतली तथा तीक्ष्ण होती जाती है। इसके विपरीत, जैसे-जैसे ध्वनि स्रोत की आवृत्ति कम होती जाती है, वैसे-वैसे उत्पन्न ध्वनि का तारत्व भी घटता जाता है तथा ध्वनि मोटी (grave) या सपाट (flat) होती जाती है।
जैसे मच्छर की भिनभिनाहट का तारत्व ऊँचा तथा शेर की दहाड़ का तारत्व नीचा होता है; क्योंकि मच्छर की भिनभिनाहट से शेर की दहाड़ की आवृत्ति बहुत कम होती है। पुरुषों की ध्वनि प्रायः मोटी तथा स्त्रियों व बच्चों की ध्वनि प्रायः बारीक होती है।
इस प्रकार पुरुषों की ध्वनि नीचे तारत्व की तथा स्त्रियों व बच्चों की ध्वनि ऊँचे तारत्व की होती है। गला बैठने पर गले से निकली ध्वनि की आवृत्ति कम हो जाती है; अतः ध्वनि का तारत्व नीचा होने से आवाज मोटी हो जाती है।
ध्वनि की चाल की पूरी जानकारी
वर्षा के दिनों में जब आकाश में बिजली कड़कती है तो ध्वनि तथा प्रकाश एक साथ उत्पन्न होते हैं, परन्तु हमें प्रकाश पहले दिखाई देता है तथा कुछ समय पश्चात् ध्वनि सुनाई देती है। इससे स्पष्ट है कि ध्वनि को बादल से हमारे कान तक आने में प्रकाश की अपेक्षा अधिक समय लगता है, अतः प्रकाश की चाल, ध्वनि की चाल से अधिक है।
वायु में ध्वनि की चाल 332 मीटर/सेकण्ड, जल में 1450 मीटर/सेकण्ड तथा धातुओं में 5110 मीटर/सेकण्ड होती है।
वायु में ध्वनि की चाल ताप बढ़ने पर बढ़ती है। 1°C ताप बढ़ाने पर वायु में ध्वनि की चाल में लगभग 0.61 मीटर/सेकण्ड की वृद्धि होती है। वायु में आर्द्रता के बढ़ने पर ध्वनि की चाल बढ़ती है। ध्वनि की चाल वायु के बहने की दिशा में बढ़ जाती है, जबकि विपरीत दिशा में बहने पर घटती है।
ध्वनि की चाल पर दाब का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। किसी माध्यम में ध्वनि की चाल मुख्यतः माध्यम की प्रत्यास्थता तथा घनत्व पर निर्भर करती है।
माध्यम की प्रत्यास्थता के कारण विक्षोभ एक कण से दूसरे कण को संचरित होता है। कोई माध्यम जितना अधिक प्रत्यास्थ होगा ध्वनि की चाल उसमें उतनी ही अधिक होगी। इसके विपरीत, अधिक घनत्व के माध्यम में ध्वनि की चाल कम होती है।
उच्च प्रत्यास्थता के कारण ठोसों और धातुओं में ध्वनि की चाल सबसे अधिक होती है। अतः ध्वनि की चाल ठोसों में सबसे अधिक, द्रवों में उससे कम तथा गैसों में सबसे कम होती है।
श्रवण परास
“हमारे कान 20 हर्ट्ज से 20 किलोहर्ट्ज के बीच की आवृत्ति वाली ध्वनि को सुनने के लिए सुग्राही होते हैं। आवृत्ति का यह परास ही श्रवण परास कहलाता है।” किसी भी सामान्य व्यक्ति का कान इस परास से बाहर की ध्वनि को नहीं सुन सकता। आवृत्ति की ये सीमाएँ अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग उम्र में बदलती रहती हैं।
जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती जाती है उसकी आवृत्ति का परास कम होता जाता है। यही कारण है कि आवृत्ति की उच्चतम सीमा बच्चों में तथा न्यूनतम सीमा वृद्धों में देखने को मिलती है।
ध्वनि तरंगों का आवृत्ति परिसर के आधार पर वर्गीकरण ध्वनि तरंगों को आवृत्ति परिसर के आधार पर निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
(1) श्रव्य तरंगें (Audible Waves) — “वे ध्वनि तरंगें जिन्हें हमारा कान आसानी से सुन सकता है श्रव्य तरंगें कहलाती हैं।” इन तरंगों की आवृत्ति 20 हर्ट्ज से लेकर 20000 हर्ट्ज तक होती है। वे निम्नतम तथा उच्चतम आवृत्तियों की श्रव्यता की सीमाएँ मीट कहलाती हैं। श्रव्य तरंगें मनुष्य तथा जानवरों की आवाजों से, घण्टी, ढोल, तबला, वायलिन, सितार आदि से उत्पन्न होती हैं।
(2) अवश्रव्य तरंगें (Infrasonic Waves)— “वे अनुदैर्घ्य यान्त्रिक तरंगें, जिनकी आवृत्तियाँ 20 हर्ट्ज के नीचे होती हैं अवश्रव्य तरंगें कहलाती हैं।” ये तरंगें मनुष्य को सुनाई नहीं देती हैं। ये तरंगें बहुत बड़े आकार के स्रोतों के कम्पन करने से उत्पन्न होती हैं। प्रयोगशाला में सरल लोलक के दोलनों से उत्पन्न तरंगों की आवृत्ति 20 हर्ट्ज से कम होती है इसलिए वे हमें सुनाई नहीं देती हैं।
(3) पराश्रव्य तरंगें (Ultrasonic Waves) — “वे अनुदैर्घ्य यान्त्रिक तरंगें, जिनकी आवृत्तियाँ 20000 हर्ट्ज से ऊँची होती हैं, पराश्रव्य तरंगें कहलाती है।” इन तरंगों को गाल्टन की सीटी तथा दाब विद्युत प्रभाव की विधि द्वारा क्वार्ट्ज के के कम्पनों से उत्पन्न कर सकते हैं। चमगादड़, बिल्लियाँ, कुत्ते, पॉरपॉइज जैसे कुछ प्राणी, कुछ पक्षी तथा कुछ कीट भी परराज्य तरंगें उत्पन्न करते हैं। इन तरंगों की तरंगदैर्घ्य बहुत कम होने के कारण इन्हें एक पतले किरण-पुंज के रूप में बहुत दूर तक भेजा जा सकता है। इनकी आवृत्ति बहुत अधिक होने के कारण ये अपने साथ बहुत ऊर्जा ले जाती हैं। इन तरंगों के अनेक लाभदायक उपयोग हैं।
पराश्रव्य तरंगों के उपयोग (Uses of Ultrasonic Waves)
(1) संकेत भेजने में—क्योंकि ये तरंगें बहुत पतले किरण पुंज के रूप में बहुत दूर तक जा सकती हैं इसीलिए इन तरंगों द्वारा आसानी से किसी विशेष दिशा में संकेत भेजे जा सकते हैं।
(2) समुद्र की गहराई ज्ञात करने में इन तरंगों का उपयोग समुद्र में डूबी हुई चट्टानों, मछलियों, पनडुब्बियों की स्थितियाँ तथा समुद्र की गहराई मापने किया जाता है। इन तरंगों से उड़ते हुए हवाई जहाज की ऊँचाई भी नापी जा सकती है।
(3) कृषि में कुछ छोटे पौधों पर इन तरंगों के डालने से पौधों की लम्बाई शीघ्रता से बढ़ती है।
(4) चिकित्सा विज्ञान में—ये तरंगें खूनरहित ऑपरेशन में, गठिया के दर्द में, मांसपेशियों के दर्द में तथा कीटाणुओं का विनाश करने में प्रयोग की जाती हैं।
ध्वनि का परार्वतन (Reflection of Sound)
प्रकाश की भाँति, ध्वनि भी एक माध्यम में चलकर दूसरे माध्यम के पृष्ठ से टकराने पर पहले माध्यम में लौट सकती है। ध्वनि का दीवारों से टकराकर वापस लौटना ही ध्वनि का परावर्तन कहलाता है। जैसे—कुएँ, धातु की चादर, प्लाईवुड आदि से ध्वनि तरंगें परावर्तित हो जाती हैं। ध्वनि भी प्रकाश की भाँति परावर्तित होती है तथा प्रकाश के परावर्तन के नियम ध्वनि के लिए भी लागू होते हैं।
ध्वनि के परावर्तन के लिए चिकनी तथा चमकीली सतह की आवश्यकता नहीं होती है। ध्वनि तरंगों के परावर्तन के लिए बड़े आकार के पृष्ठों की आवश्यकता होती है। ध्वनि का परार्वतन चिकने एवं कठोर पृष्ठों से अधिक तथा खुरदरे एवं नरम पृष्ठों से कम होता है। इसलिए ध्वनि का परार्वतन दीवारों, पहाड़ों तथा पृथ्वी तल सभी से हो जाता है।
उदाहरण – ध्वनि परावर्तन के उदाहरण हमारे दैनिक जीवन में मिलते हैं। यदि हम किसी कुएँ में झाँककर बोलते हैं तो हमें अपनी आवाज कुएँ से आती हुई सुनाई देती है। कॉलेज में बजते हुए लाउडस्पीकर की ध्वनि मूल स्रोत के अतिरिक्त किसी स्थान से भी आती हुई प्रतीत होती है।।