ऊष्मा कोई भौतिक पदार्थ नहीं है जिसमें द्रव्यमान हो, जो स्थान घेरे तथा जिसमें कोई रंग अथवा गन्ध हो अर्थात् ऊष्मा द्रव्य नहीं है। वास्तव में ऊष्मा एक ऊर्जा है जिसे अन्य ऊर्जाओं के रूप में तथा अन्य ऊर्जाओं को ऊष्मा के रूप में बदला जा सकता है।
अधिकांश वस्तुएँ गर्म करने पर फैल जाती हैं तथा ठण्डा करने पर अपनी पूर्वावस्था में आ जाती हैं। गर्म होकर वस्तुओं के फैलने की घटना को ऊष्मीय प्रसार अथवा तापीय प्रसार कहते हैं। ऊष्मीय प्रसार का मुख्य कारण ठोस पदार्थों को गर्म करने पर, पदार्थ के अणुओं के बीच की औसत दूरी का बढ़ना है।
उदाहरण- सड़क पर लगे टेलीफोन के तार ग्रीष्म ऋतु में गर्मी के कारण लम्बाई में बढ़ जाते हैं तथा खम्भों के बीच ढीले पड़ जाते हैं।
ऊष्मीय अथवा तापीय प्रसार (Thermal Expansion)
कुछ पदार्थ ऐसे भी हैं जो गर्म करने पर सिकुड़ जाते हैं; जैसे—पानी तथा रबड़ पानी 0°C से 4°C तक गर्म करने पर आयतन में घटता तथा 4°C के पश्चात् आयतन में बढ़ना प्रारम्भ करता है। इसी कारण 4°C पर पानी का घनत्व सबसे अधिक होता है। ऊष्मीय प्रसार ठोसों में सबसे कम तथा गैसों में सबसे अधिक होता है।

चूँकि द्रव की अपनी कोई निश्चित आकृति नहीं होती है, ये जिस बर्तन में रखे जाते हैं उसका रूप धारण कर लेते हैं, अतः इनमें केवल आयतन प्रसार ही सम्भव है। द्रव को गर्म करने के लिए उसे किसी बर्तन में रखना पड़ता है। अतः गर्म करने पर पहले बर्तन का प्रसार होता है और फिर बाद में द्रव का प्रसार होता है।
द्रवों में ऊष्मीय प्रसार का प्रायोगिक प्रदर्शन— इसके लिए प्रयुक्त उपकरण प्रदर्शित काँच की है। इसमें काँच के फ्लास्क के मुँह पर कॉर्क द्वारा काँच की लम्बी व पतली नली लगाई गई है। इस नली नली के साथ एक पैमाना लगा है। पूरे फ्लास्क को द्रव से भर देते हैं जो कि नली में चिन्ह A तक चढ़ जाता है।
जब फ्लास्क को गर्म करते हैं तो पहले द्रव का तल चिन्ह B तक नीचे आता है तथा फिर 4 से ऊपर C तक चढ़ जाता है। इसका कारण यह है कि जैसे ही फ्लास्क गर्म होता है तो उसका काँच फैल जाता है, जिसके कारण द्रव का तल नीचे आ जाता है, परन्तु कुछ समय बाद जब द्रव गर्म होने लगता है तो फ्लास्क व द्रव दोनों के आयतन में साथ-साथ प्रसार होने लगता है।
क्योंकि द्रव का आयतन प्रसार, काँच के प्रसार से अधिक होता है; अतः द्रव का तल चिन्ह 4 से ऊपर C A तक उठ जाता है। इस प्रकार इस प्रयोग में द्रव का प्रसार चिन्ह B से चिन्ह C तक होता है, परन्तु चिन्ह 4 से चिन्ह C तक ही प्रतीत होता है।
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इस प्रकार द्रव आयतन प्रसार दो प्रकार का होता है—
(1) द्रव का आभासी प्रसार- यदि द्रव का प्रसार ज्ञात करते समय बर्तन के प्रसार को गणना में न लें तो यह द्रव का आभासी प्रसार कहलाता है। चित्र 9.6 में AC द्रव का आभासी प्रसार है।
(2) द्रव का वास्तविक प्रसार— यदि द्रव का प्रसार ज्ञात करते समय बर्तन के प्रसार को भी गणना में लेते हैं तो यह द्रव का वास्तविक प्रसार होता है। चित्र 9.6 में BC द्रव का वास्तविक प्रसार है। द्रव के दोनों प्रसारों (आभासी तथा वास्तविक) में निम्नलिखित सम्बन्ध है.
ठोसों में ऊष्मीय प्रसार (Thermal Expansion in Solids)
जब किसी ठोस को गर्म किया जाता है तो वह गर्मी (ऊष्मा) पाकर फैलने लगता है। इस घटना को ठोसों का ऊष्मीय प्रसार कहते हैं।
प्रयोग-साधारण ताप पर यदि एक धातु की गेंद को एक छल्ले में से निकाला जाए तो वह आसानी से उसमें से निकल जाती है, परन्तु इस गेंद को गर्म करने के पश्चात् इस छल्ले में से निकाला जाए तो गेंद निकल नहीं पाती है। (चित्र 9.1) इससे स्पष्ट होता है कि गेंद को गर्म किए जाने पर वह सभी दिशाओं में फैल जाती है। इसे ही ठोसों का ऊष्मीय प्रसार कहते हैं।
भिन्न-भिन्न ठोसों में ऊष्मीय प्रसार भिन्न-भिन्न होता है। इसे देखने के लिए दो धातुओं (जैसे— लोहा व ताँबा) की एक ही आकार की दो छड़ों को एक-दूसरे के ऊपर रखकर कीलक (rivets) द्वारा जोड़ देते हैं। जब इस दोहरी छड़ को गर्म किया जाता है तो यह दोहरी छड़ मुड़ जाती है।
लोहे की छड़ अन्दर की ओर तथा ताँबे की छड़ मोड़ के बाहर की ओर हो जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि समान रूप से गर्म किए जाने पर ताँबे में लोहे की अपेक्षा अधिक प्रसार होता है।.
ठोसों में ऊष्मीय प्रसार निम्नलिखित तीन प्रकार से होता है—
(1) दैर्घ्य अथवा रेखीय प्रसार
(2) क्षेत्रीय प्रसार
(3) आयतन प्रसार।
प्रयोग द्वारा किसी धातु का रेखीय प्रसार गुणांक ज्ञात करना (Determination of the Coefficient of Linear Expansion of a Metal by Experiment )
जिस धातु का रेखीय प्रसार गुणांक (c) ज्ञात करना होता है उस धातु की 1 मीटर लम्बी छड़ AB को एक खोखले बेलन में खड़ी कर देते हैं। इस खोखले बेलन की दीवार में दो छोटी नलियाँ लगी रहती हैं (चित्र 9.3)। ऊपरी नली से भाप प्रवेश करती है। यह छड़ के I चारों तरफ फैलकर दूसरी नली से बारह निकल जाती है।
बीच की नली में एक तापमापी इस प्रकार लगा देते हैं कि तापमापी की घुण्डी छड़ को ठीक प्रकार से स्पर्श करे। छड़ का 4 सिरा एक स्थिर पेंच के सहारे टिका रहता है तथा दूसरा सिरा B फैलने के लिए स्वतन्त्र होता है। इस प्रकार छड़ को गर्म करने पर B सिरे की स्थिति बदलती है जिसे गोलाईमापी की सहायता ज्ञात करते हैं।
सर्वप्रथम छड़ AB की लम्बाई पैमाने द्वारा नोट कर लेते हैं। यह छड़ की प्रारम्भिक लम्बाई L है तथा कमरे के ताप को तापमापी से पढ़कर नोट्
कर लेते हैं। अब गोलाईमापी के पेंच को घुमाकर उसकी नोक को छड़ से स्पर्श कराते हैं। जैसे-जैसे पेंच की नोक छड़ को स्पर्श करती है वैसे-वैसे विद्युत घण्टी बजना आरम्भ कर देती है। इस दशा में गोलाईमापी का पाठ पढ़कर नोट कर लेते हैं।
अब गोलाईमापी के पेंच को बाहर की ओर घुमाकर ऊपर उठा लेते हैं और खोखले बेलर में भाप प्रवाहित करते हैं जिससे छड़ गर्म होने लगती है और तापमापी में पाठ्यांक बढ़ने लगता है। जब तापमापी का पाठ स्थिर हो जाए, तब गोलाईमापी के पेंच को पुनः छड़ के सिरे B से स्पर्श कराकर पाठ्यांक नोट कर लेते हैं।
गोलाईमापी के दोनों पाठ्यांकों के अन्तर से छड़ की लम्बाई में वृद्धि (AZ) ज्ञात हो जाती है। बेलन में लगे तापमापी से प्रारम्भिक तथा अन्तिम पाठों का अन्तर (AI) भी ज्ञात कर लेते हैं।
जल का असामान्य प्रसार (Abnormal Expansion of Water )
प्राय: गर्म किए जाने पर सभी द्रवों का आयतन बढ़ता है और घनत्व घटता है, परन्तु 0°C से 4°C तक जल को गर्म करने पर इसका आयतन घटता है और घनत्व बढ़ता है। इसे ही जल का असामान्य प्रसार कहते हैं। इसको चित्र 9.7 (a) में दिखाया गया है। 4°C पर जल का घनत्व अधिकतम (1.0000 × 103 किग्रा/मीटर) होता है।
इससे अधिक अथवा कम ताप पर जल का घनत्व घटने लगता है। चित्र 9.7(b) में जल के घनत्व का ताप के साथ परिवर्तन दिखाया गया है। इससे स्पष्ट है कि 0°C से 4°C तक जल का घनत्व बढ़ता है, 4°C पर घनत्व सबसे अधिक हो जाता है तथा 4°C के ऊपर ताप बढ़ने पर घनत्व पुनः कम होने लगता है।
जल के असामान्य प्रसार का दैनिक जीवन पर प्रभाव (Effect of Abnormal Expansion of Water on Daily Life)
(1) तुषार वाली रातों में जल के पाइप कभी-कभी फट जाते हैं— अधिक ठण्डे स्थानों पर शीत ऋतु में नलों में बहने वाले जल का ताप 4°C से नीचे गिर जाता है, जिससे जल के आयतन में वृद्धि हो जाती है, परन्तु नल (पाइप) सिकुड़ता है। इन विपरीत प्रक्रियाओं के कारण नलों की दीवारों पर इतना अधिक दाब पड़ता है कि वे फट जाते हैं।
(2) पौधों के अन्दर जल जम जाने से उनकी वाहिकाएँ फट जाती हैं— जाड़ों की ऋतु में जब पौधों की वाहिकाओं में बहने वाला जल जमकर बर्फ का रूप ले लेता है तो उसका आयतन बढ़ने के कारण पौधों की वाहिकाओं पर इतना दाब पड़ता है कि वे फट जाती हैं।
(3) पहाड़ी चट्टानें जाड़ों में स्वयं फट जाती हैं— जल पहाड़ी चट्टानों के छिद्रों तथा दरारों से होकर चट्टानों में प्रवेश कर जाता है। जाड़े की ऋतु में जब यह जल जमकर बर्फ बन जाता है तो इसका आयतन बढ़ जाता है। आयतन प्रसार के कारण यह चट्टानों पर इतना दाब डालता है कि वे फट जाती हैं।
(4) मछलियों का जीवित रहना ठण्डे देशों में शीतकाल में वायु का ताप 0°C से भी कम हो जाता है। अतः वहाँ की झीलों में पानी जमने लगता है। वायु का ताप गिरने पर पहले झीलों की सतह का जल ठण्डा होता है।
अतः यह जल भारी होकर नीचे बैठता रहता है और नीचे का हल्का जल ऊपर आने लगता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि पूरी झील का पानी 4°C तक नहीं गिर जाता है।
जब सतह के जल का ताप 4°C से नीचे गिरने लगता है तो इसका घनत्व कम होने लगता है; अतः यह अब नीचे नहीं जाता है तथा 0°C तक ठण्डा होकर बर्फ के रूप में सतह पर ही जमने लगता है। इस प्रकार बर्फ जमने की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर होती है।
बर्फ की इस परत के नीचे अब भी 4°C का जल रहता है। चूँकि बर्फ ऊष्मा की कुचालक है; अतः वह नीचे के 4°C वाले जल की ऊष्मा को बाहर नहीं जाने देती है। इस प्रकार जल का ताप 4°C ही बना रहता है और इसमें मछलियाँ जीवित रहती हैं।