कार्य (Work)— हम अपने दैनिक जीवन में अनेक क्रियाएँ करते हैं; जैसे पुस्तक पढ़ना, साइकिल चलाना, खेलना, किसान का हल चलाना, दीवार को धक्का देना, मजदूर का गेहूं की बोरी उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखना, मजदूर का बोझा लेकर एक ही स्थान पर खड़ा रहना आदि।
साधारण बोलचाल की भाषा में इन सभी क्रियाओं में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति कार्य कर रहा है, परन्तु भौतिकी में कार्य का एक विशेष अर्थ है। भौतिकी के अनुसार, कार्य का होना तभी माना जाता है जब किसी वस्तु पर बल लगाकर उसकी स्थिति में परिवर्तन कर दिया जाए।
इसके अनुसार कार्य होने के लिए आवश्यक है—
(1) बल
(2) बल की दिशा में विस्थापन
इस परिभाषा के अनुसार यदि कोई मजदूर सिर पर बोझा लिए हुए एक स्थान पर खड़ा है तो वह कोई कार्य नहीं कर रहा है। इसी प्रकार यदि दीवार को धक्का दिया जाए तो (चूँकि दीवार अपने स्थान से नहीं हटती) कोई कार्य किया हुआ नहीं माना जाता। पुस्तक पढ़ने में भी (यद्यपि मानसिक परिश्रम होता है) भौतिकी के अनुसार कोई कार्य नहीं होता, क्योंकि कोई बल नहीं लग रहा है।
कार्य की माप (Measurement of Work)
किसी वस्तु पर किए गए कार्य की माप, वस्तु पर आरोपित बल तथा बल की दिशा में वस्तु के विस्थापन के गुणनफल के बराबर होती है.

कार्य = बल x बल की दिशा में विस्थापन कार्य अदिश राशि है; क्योंकि बल तथा विस्थापन दोनों ही सदिश राशियाँ हैं।
जब वस्तु का विस्थापन, लगाए गए बल की दिशा के लम्बवत् होता है तो किया गया कार्य शून्य (न्यूनतम) होगा।
उदाहरण- यदि कोई कुली सिर पर बोझ उठाकर प्लेटफार्म पर चल रहा है तो वह कोई कार्य नहीं करता (क्योंकि उसका कार्य गुरुत्व बल के लम्बवत् है)। इसी प्रकार वृत्ताकार पथ पर घूमते पिण्ड पर बल की दिशा सदैव वृत्त के केन्द्र की ओर दिष्ट होती है अर्थात् पिण्ड की गति के लम्बवत् दिशा में होती है
अर्थात् वृत्ताकार पथ पर घूमते पिण्ड पर अभिकेन्द्र बल द्वारा किया गया कार्य सदैव शून्य होता है। (2) यदि बल विस्थापन की दिशा में अर्थात् 0 = 0° है तो cos 0° = 1 जो कि cos 6 का अधिकतम मान.
अर्थात् जब वस्तु का विस्थापन, लगाए गए बल की दिशा में होता है तो किया गया कार्य अधिकतम होगा। (3) यदि विस्थापन S = 0 है तो किया गया कार्य W = 0
अर्थात् यदि वस्तु का विस्थापन शून्य है तो वस्तु पर लगा बल कोई कार्य नहीं करेगा; जैसे—सिर पर बोझा लिए खड़ा मजदूर कोई कार्य नहीं करता। चाहे वह खड़ा खड़ा थक ही क्यों न जाए।
कार्य का मात्रक (Unit of Work )
कार्य= बल x विस्थापन (बल की दिशा में)
इस मात्रक को जूल भी कहते हैं तथा इसे J से प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार M.K.S. तथा S.I. पद्धति में कार्य का मात्रक जूल है।
जूल की परिभाषा (Definition of Joule ) — ” 1 जूल वह कार्य है, जो 1 न्यूटन के बल द्वारा वस्तु को बल की दिशा में 1 मीटर विस्थापित करने में किया जाता है।। ” C.G.S. पद्धति में कार्य का मात्रक अर्ग (Erg) है।
शक्ति अथवा सामर्थ्य (Power)
“किसी कर्त्ता के कार्य करने की समय दर को सामर्थ्य अथवा शक्ति कहते हैं।” इसे ‘P’ से प्रदर्शित करते हैं।
एकांक समय में किसी मशीन द्वारा किया गया कार्य उसकी सामर्थ्य के बराबर होता है।
उदाहरण–एक मजदूर 100 ईंटों को मकान की छत पर घण्टे में चढ़ाता है, जबकि दूसरा मजदूर 100 ईंटों को छत पर चढ़ाने में 2 घण्टे लेता है। इस दशा में दोनों मजदूरों ने कार्य तो बराबर किया, परन्तु पहले मजदूर ने वही कार्य आधे समय में किया; अतः पहले मजदूर की सामर्थ्य दूसरे से दोगुनी है।
कार्य तथा सामर्थ्य में अन्तर (Difference between Work and Power)—
किसी पिण्ड पर बल लगाकर उसे बल की दिशा में विस्थापित करने की क्रिया को कार्य कहते हैं। कार्य होने के लिए— (i) बल तथा (ii) बल की दिशा में विस्थापन दोनों आवश्यक हैं। इसका मात्रक जूल है, जबकि कर्त्ता के द्वारा कार्य करने की दर को सामर्थ्य कहते हैं.
अतः किसी वस्तु की सामर्थ्य उसके द्वारा प्रति एकांक समयान्तराल में किए गए कार्य के बराबर होती है। सामर्थ्य के लिए (i) बल, (ii) बल की दिशा में विस्थापन तथा (iii) समय, तीनों होने आवश्यक हैं। इसका मात्रक जूल/सेकण्ड है।
उदाहरण – एक मजदूर 500 ईंटों को मकान की छत पर 1 घण्टे में चढ़ाता है, जबकि दूसरा मजदूर 500 ईंटों को 2 घण्टे में चढ़ाता है। इस दशा में दोनों मजदूरों ने बराबर कार्य किया अर्थात् दोनों की बराबर ऊर्जा व्यय हुई, परन्तु पहले मजदूर ने वही कार्य आधे समय में किया। अतः पहला मजदूर, दूसरे मजदूर से दोगुनी सामर्थ्य रखता है।
ऊर्जा स्थानान्तरण (Energy Transformation)
ऊर्जा के. अनेक रूप; जैसे—–यान्त्रिक ऊर्जा (ग़तिज ऊर्जा + स्थितिज ऊर्जा), ऊष्मीय ऊर्जा, प्रकाश ऊर्जा, ध्वनि ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा, सौर ऊर्जा आदि एक रूप से दूसरे ऊर्जा रूप में बदलती रहती हैं। ऊर्जा के एक रूप से दूसरे रूप में बदलने की इस प्रक्रिया को ऊर्जा रूपान्तरण कहते हैं।
ऊर्जा रूपान्तरण के उदाहरण (Examples of Energy Transformation)—ऊर्जा रूपान्तरण को निम्नलिखित उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है.
ऊँचाई से गिरती हुई वस्तु में (In Body falling from a Height)— पृथ्वी से h ऊँचाई पर स्थित किसी वस्तु में केवल स्थितिज ऊर्जा (= mgh) होती है (चित्र 6.3)। जब यह वस्तु नीचे गिरती है तो इसकी स्थितिज ऊर्जा लगातार गतिज ऊर्जा में बदलती रहती है.
यान्त्रिक ऊर्जा (Mechanical Energy)
वह ऊर्जा जो किसी वस्तु में शारीरिक कार्य अथवा यान्त्रिक कार्य के कारण संचरित होती है, यान्त्रिक ऊर्जा कहलाती है। अथवा वस्तु की गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा को संयुक्त रूप से यान्त्रिक ऊर्जा कहते हैं, अत:
यान्त्रिक ऊर्जा = गतिज ऊर्जा + स्थितिज ऊर्जा
यान्त्रिक ऊर्जा दो प्रकार की होती है-
(1) गतिज ऊर्जा तथा
(2) स्थितिज ऊर्जा
(1) गतिज ऊर्जा (Kinetic Energy )– किसी गतिशील वस्तु में उसकी गति के कारण कार्य करने की जो क्षमता होती है, उसे उस वस्तु की गतिज ऊर्जा कहते हैं; जैसे- आँधी में टीन उड़ाने की क्षमता, गतिशील हथौड़े में कील गाड़ने की क्षमता, बहते जल में टरबाइन के ब्लेडों को घुमाने की क्षमता (जिससे विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती है), ऊपर की ओर फेंके गए पत्थर में गुरुत्व बल के विरुद्ध कार्य करने की क्षमता तथा बन्दूक से छूटी गोली में लक्ष्य को भेदने की क्षमता होती है। अतः इन सभी में गतिज ऊर्जा है। गतिज ऊर्जा को ‘K’ से प्रदर्शित करते हैं तथा इसका मात्रक जूल है।
गतिज ऊर्जा की माप (Measurement of Kinetic Energy)- किसी वस्तु को विरामावस्था से गतिशील अवस्था में लाने में किया गया कार्य उसकी गतिज ऊर्जा की माप होती है।
पिण्ड की गतिज ऊर्जा (K) का द्रव्यमान (m) तथा वेग (v) से सम्बन्ध- माना m द्रव्यमान की कोई वस्तु विरामावस्था में है। यदि वस्तु पर एक अचर बल F लगाया जाएं तो वस्तु में त्वरण a उत्पन्न हो जाता है।
चाल का वर्ग होने के कारण, गतिज ऊर्जा पर द्रव्यमान की अपेक्षा चाल का अधिक प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि गोली हल्की होने पर भी घायल कर देती है। यदि वस्तु का द्रव्यमान दो गुना कर दिया जाए तो उसकी गतिज ऊर्जा दो गुनी हो जाएगी, परन्तु यदि चाल दो गुनी कर दी जाए तो गतिज ऊर्जा चार गुनी हो जाएगी।
(2) स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy ) — बहुत-सी वस्तुएँ अपनी स्थिति (position) अथवा विकृत अवस्था (state of strain) के कारण भी कार्य कर सकती हैं। अतः “वस्तुओं में उनकी स्थिति अथवा विकृत अवस्था (विकृति) के कारण जो ऊर्जा होती है, उसे स्थितिज ऊर्जा कहते हैं।” इसे ‘U’ से प्रदर्शित करते हैं तथा इसका मात्रक ‘जूल’ है।
स्थितिज ऊर्जा की माप (Measurement of Potential Energy)
इस ऊर्जा की माप उस कार्य द्वारा की जाती है, जो स्वतन्त्र छोड़ देने पर उस वस्तु द्वारा किया जाता है; जैसे यदि किसी पत्थर को हम पृथ्वी तल से उठाकर किसी ऊँचाई तक ले जाएँ तो इस प्रक्रिया में हमें गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध कार्य करना होगा तथा यही कार्य पत्थर में स्थितिज ऊर्जा के रूप में संचित हो जाएगा। यदि हम पत्थर को स्वतन्त्र रूप से छोड़ दें तो यह ठीक उतना ही कार्य करेगा जो स्थितिज ऊर्जा के रूप में इसमें संचित है।
उदाहरण – तनी हुई कमान में, दबी हुई स्प्रिंग में, ऊँचाई पर स्थित झरने के जल में, खिंचे रबड़ बैंड आदि में स्थितिज ऊर्जा होती है।
वस्तुओं में स्थितिज ऊर्जा विभिन्न रूपों में हो सकती है; जैसे-
(i) गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा
(ii) प्रत्यास्थ स्थितिज ऊर्जा
(ii) स्थिर-विद्युत स्थितिज ऊर्जा
(iv) चुम्बकीय स्थितिज ऊर्जा
(v) रासायनिक ऊर्जा
(vi) नाभिकीय ऊर्जा
(i) गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा (Gravitational Potential Energy)— पृथ्वी तल पर वस्तु की स्थितिज ऊर्जा को शून्य माना जाता है।
अतः “किसी वस्तु की गुरूत्वीय स्थितिज ऊर्जा उस कार्य के बराबर होती है, जो गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध वस्तु को पृथ्वी तल से उच्चतम स्थिति तक ले जाने में किया जाता है। “
गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा की माप – यदि m द्रव्यमान की वस्तु को पृथ्वी तल h ऊँचाई तक उठाया जाए तो वस्तु की गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा (U) = वस्तु का गुरुत्व बल (F = mg) के विरुद्ध h ऊँचाई तक उठाने में किया गया कार्य.
(ii) प्रत्यास्थ स्थितिज ऊर्जा (Elastic Potential Energy)- किसी वस्तु में उसकी आकृति (shape) अथवा विन्यास (configuration) के कारण भी स्थितिज ऊर्जा हो सकती है। इस ऊर्जा को प्रत्यास्थ स्थितिज ऊर्जा कहते है; जैसे यदि किसी स्प्रिंग को खींचा जाए तो खींचने की क्रिया में उसकी प्रत्यास्थता के विरुद्ध जो कार्य किया जाएगा वह स्प्रिंग में उसकी स्थितिज ऊर्जा के रूप में संचित हो जाता है।
उदाहरण— जब हम घड़ी में चाबी देते हैं तो घड़ी की स्प्रिंग दब जाती है, जो धीरे-धीरे खुलकर घड़ी की सुइयों को चलाती रहती है। स्प्रिंग में दबी हुई (विकृत) अवस्था के कारण जो स्थितिज ऊर्जा संचित होती है, उसे प्रत्यास्थ स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। प्रत्यास्थ स्थितिज ऊर्जा की माप यदि स्प्रिंग को x दूरी तक खींचा जाए तो प्रत्यास्थता के कारण स्प्रिंग में उत्पन्न आन्तरिक प्रत्यास्थ बल खिंचाव (x) के अनुक्रमानुपाती होता है.
(iii) स्थिर विद्युत स्थितिज ऊर्जा (Electrostatic Potential Energy) – समान विद्युत आवेश (जैसे—इलेक्ट्रॉन-इलेक्ट्रॉन अथवा प्रोटॉन-प्रोटॉन) एक-दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं। यदि उन्हें एक-दूसरे के समीप लाया जाए तो प्रतिकर्षण बल के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है।
ऊर्जा-रूपान्तरण के व्यावहारिक उपयोग (Applications of Energy Transformation)
यान्त्रिक ऊर्जा के अतिरिक्त ऊर्जा के अन्य रूप देखने को मिलते हैं। ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है। ऊर्जा केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित की जा सकती है। ऊर्जा के इस एक रूप से दूसरे रूप में बदलने की प्रक्रिया को ऊर्जा का रूपान्तरण कहते हैं।
ऊर्जा रूपान्तरण के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
(1) ऊँचाई से गिरने वाली वस्तु की स्थितिज ऊर्जा गतिज ऊर्जा में रूपान्तरित होती है।
(2) सरल लोलक में लोलक की स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में एवं गतिज ऊर्जा का स्थितिज ऊर्जा में रूपान्तरण होता रहता है। मध्य स्थिति में गतिज ऊर्जा अधिकतम एवं स्थितिज ऊर्जा न्यूनतम होती है, जबकि किनारों वाली स्थितियों पर स्थितिज ऊर्जा अधिकतम एवं गतिज ऊर्जा शून्य होती है।
(3) जब दो पत्थरों को आपस में रगड़ते हैं, तो वे गर्म हो जाते हैं, इस प्रक्रिया में गतिज ऊर्जा का ऊष्मीय ऊर्जा में रूपान्तरण होता है।
(4) जब बिजली के हीटर में धारा प्रवाहित की जाती है, तो वह गर्म होकर चमकने लगता । इस प्रक्रिया में विद्युत ऊर्जा ऊष्मीय ऊर्जा में परिवर्तित होती है।
(5) जब बिजली के बल्ब में धारा प्रवाहित की जाती है, तो वह गर्म हो जाता है तथा चमक देने लगता है। इस प्रक्रिया में विद्युत ऊर्जा, प्रकाश ऊर्जा एवं ऊष्मीय ऊर्जा में बदलती है।
(6) ऊष्मीय पॉवर स्टेशन में कोयला जलाकर विद्युत ऊर्जा उत्पन्न की जाती है। इस प्रक्रिया में कोयले की रासायनिक ऊर्जा विद्युत ऊर्जा में बदलती है।
(7) ऊष्मा इंजन में ऊष्मीय ऊर्जा यान्त्रिक ऊर्जा में बदलती है।
(8) सौर सेल में सौर ऊर्जा विद्युत ऊर्जा में बदलती है।
(9) एक बैटरी में रासायनिक ऊर्जा विद्युत ऊर्जा में बदलती है।
(10) लाउडस्पीकर में विद्युत ऊर्जा, ध्वनि ऊर्जा में रूपान्तरित होती है।
(11) जब बिजली के पंखे में धारा प्रवाहित की जाती है, तो वह घूमने लगता है। इस क्रिया में विद्युत ऊर्जा यान्त्रिक ऊर्जा में परिवर्तित होती है।
(12) माइक्रोफोन में ध्वनि ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में रूपान्तरण होता है।
ऊर्जा संरक्षण का सिद्धान्त
ऊर्जा के एक रूप से दूसरे रूप में बदलने की प्रक्रिया से ऊर्जा सम्बन्धी एक बहुत ही व्यापक नियम का पता चलता है। इसके अनुसार, “ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है और न ही नष्ट, यह केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित की जा सकती है।” इसे ऊर्जा सरंक्षण का नियम कहते हैं।
इस प्रकार जब भी ऊर्जा किसी रूप में लुप्त होती है तो ठीक उतनी ही ऊर्जा दूसरे रूपों में उत्पन्न हो जाती है। अतः ऊर्जा संरक्षण के नियम को दूसरी प्रकार से निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है—
“विश्व की सम्पूर्ण ऊर्जा का परिमाण नियत रहता है। “
यान्त्रिक ऊर्जा का संरक्षण (Conservation of Mechanical Energy)
किसी पिण्ड की गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा का योग यान्त्रिक ऊर्जा कहलाता है अर्थात्
यान्त्रिक ऊर्जा = गतिज ऊर्जा + स्थितिज ऊर्जा
‘अनेक निकायों की स्थितिज ऊर्जा, गतिज ऊर्जा में तथा गतिज ऊर्जा, स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित होती रहती है, 44 परन्तु इन दोनों का योग सदैव नियत रहता है। यह यान्त्रिक ऊर्जा का संरक्षण है।” यह केवल तभी लागू होता है, जब घर्षण बल उपस्थित न हो। ऊर्जा संरक्षण की सत्यता को निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-
(1) गुरूत्व के अन्तर्गत मुक्त रूप से गिरता हुआ पिण्ड माना m द्रव्यमान का एक पिण्ड पृथ्वी से h ऊँचाई पर स्थित बिन्दु A से मुक्त रूप से गिरना प्रारम्भ करता है (चित्र 6.5)। बिन्दु 1 पर इसका वेग शून्य होगा। यह पृथ्वी तल पर स्थित बिन्दु C तक गिरता है। इनके बीच बिन्दु 4 से x गहराई पर बिन्दु B है।
इस प्रकार जैसे-जैसे पिण्ड पृथ्वी की ओर गिरता है उसकी गतिज ऊर्जा बढ़ती जाती है, जबकि स्थितिज ऊर्जा घटती जाती है। समीकरण (1), (2) व (3) से स्पष्ट है कि घर्षण आदि अन्य बलों की अनुपस्थिति में पिण्ड की स्थितिज ऊर्जा तथा गतिज ऊर्जा का योग सदैव स्थिर रहता है.
अर्थात् गुरूत्वीय बल के अन्तर्गत पिण्ड की कुल यान्त्रिक ऊर्जा सदैव नियत रहती है। यही यान्त्रिक ऊर्जा के संरक्षण का नियम है। पृथ्वी से टकराने पर पिण्ड की कुल ऊर्जा ऊष्मा, ध्वनि तथा प्रकाश में बदल जाती है।
(2) स्प्रिंग से लटके द्रव्यमान की गति में ऊर्जा-माना एक स्प्रिंग किसी दृढ आधार से लटकी है जिसके दूसरे सिरे पर एक पिण्ड बँधा है (चित्र 6.6)। जब स्प्रिंग को थोड़ा-सा नीचे खींचकर छोड़ दिया जाता है तो पिण्ड ऊपर-नीचे कम्पन करने लगता है [चित्र 6.6 (a)]। इसका कारण यह है जब पिण्ड को नीचे की ओर खींचते हैं तो स्प्रिंग भी खिंचती है।
स्प्रिंग को खींचने की इस प्रक्रिया में किया गया कार्य स्प्रिंग में स्थितिज ऊर्जा के रूप में संचित हो जाता है। पिण्ड की इस निम्नतम अवस्था में निकाय की कुल ऊर्जा, स्प्रिंग में स्थितिज ऊर्जा के रूप में रहती है।
जब स्प्रिंग को स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता है तो वह अपनी साम्यावस्था में आने लगती है, और इस पर लटका पिण्ड ऊपर की ओर गति करने लगता है। इससे स्प्रिंग की स्थितिज ऊर्जा घटने लगती है, जबकि पिण्ड की गतिज ऊर्जा बढ़ने लगती है। साम्यावस्था में स्प्रिंग की स्थितिज ऊर्जा शून्य हो जाती है अर्थात् कुल ऊर्जा, गतिज ऊर्जा में बदल जाती है.
स्प्रिंग से लटका पिण्ड जड़त्व के कारण ऊपर की ओर चला जाता है जिससे स्प्रिंग दबने लगती है। पुनः पिण्ड की गतिज ऊर्जा, स्प्रिंग की स्थितिज ऊर्जा में बदलने लगती है। पिण्ड की इस उच्चतम स्थिति में, गतिज ऊर्जा शून्य हो जाती है तथा निकाय की कुल ऊर्जा, स्प्रिंग में स्थितिज ऊर्जा के रूप में रहती है [चित्र 6.6 (c)]।
इस प्रकार पिण्ड के दोलन में ऊर्जाओं का रूपान्तरण होता रहता है, परन्तु प्रत्येक स्थिति में कुल ऊर्जा का मान स्थिर रहता है।